रंग में भंग और चाय में परायापन! ये देश की मानसिकता पर एक "दाग" है।

विगत कुछ समय से मैं यह देख रहा हूं कि एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के विज्ञापनों पर फिजूल का विवाद छिड़ा हुआ है।

हालांकि मैं विज्ञापन नहीं देखता हूं किंतु चाय और डिटर्जेंट के यह दोनों विज्ञापन मैंने इन विवादों के उपरांत उत्सुकतावश देखें। दिल को छू लेने वाले ये दोनों विज्ञापन मुझे बेहद ही भाये। न जाने लोग इनसे इतना आहत क्यों हो गए!

क्या विनोद, प्रेम, सहनशीलता और सहृदयता हमारी संस्कृति के अंग नहीं है? हंसी-अठखेलियां और मजाक-मस्ती के लिए मशहूर होली के त्यौहार के पीछे की वह भावना कहां विलुप्त हो गई?

विश्व के सबसे विशालतम कुंभ मेले और देश के सबसे बड़े त्योहारों में से एक होली के त्योहार की पृष्ठभूमि पर विज्ञापन तैयार करना किसी भी व्यापारिक प्रतिष्ठान की समझदारी का ही परिचायक है।

और इन विज्ञापनों के जरिए महत्वपूर्ण सामाजिक संदेशों को प्रसारित करना तो सोने पे सुहागा के समान है।

यह बात किसी से छुपी नहीं है कि कुंभ मेले में अनेक संभ्रांत वर्ग के लोग अपने पर आश्रित वृद्ध माता-पिता को वहां छोड़ आते हैं। इस समस्या को उजागर कर, अपनेपन का संदेश देकर इस कंपनी ने अपने विज्ञापन के द्वारा एक अच्छी पहल की है।

लेकिन बाबा रामदेव जैसे प्रतिद्वंदियों को इसमें खुशी न होना स्वाभाविक है। हमारी संस्कृति के यह तथाकथित ठेकेदार, देश-विदेशों की राजनीतिक रेखाओं को आधार बना अपने-पराए का भेद-भाव करना सिखाते हैं। कहाँ गया वो वसुधैव कुटुम्बकम् का मूल संकल्प?

उदारचरितानांतु वसुधैव कुटुम्बकम्।

अर्थ - यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों की तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।

महोपनिषद् के अध्याय ४ का यह श्‍लोक क्रं. ७१ तो हमारे देश की संसद के प्रवेश कक्ष में भी अंकित किया गया है।

रंगों को "दाग" की संज्ञा देना भी संदर्भगत ही है। क्या अपनी भाषा के शब्दों के प्रयोग में हम इतने भी परिपक्व नहीं हुए? प्रसंग और संदर्भ के अनुरुप तो हमारे संबंधों के संबोधन तक बदल जाते हैं। इतना तो धर्म शास्त्रों में वर्णित कथाओं और प्रसंगों के अध्ययन करने मात्र से ही पता चल जाता है!

अर्थ का अनर्थ निकालना चाहो तो किसी का भी निकाला जा सकता है।

एक बात बताऊं? जब से मैंने उपरोक्त कंपनी के विज्ञापन की टैग लाइन "दाग अच्छे हैं" सुनी, तभी से मैंने कोई भी डिटर्जेंट इस्तेमाल करना छोड़ दिया। अब तो आलम यह है कि मैं कोई पोशाक पहनूँ और उसमें कोई दाग न लगा हो, तो वह मुझे अच्छी ही नहीं लगती!

जब "दाग अच्छे हैं" तो मैं धोना क्यों? 😊

यह जानकर अच्छा लगा कि उपरोक्त कंपनी ने अपने दोनों विवादित विज्ञापनों को बंद नहीं किया हे।

  • क्या आप भी इनका विरोध कर रहे हैं और हैशटैग आन्दोलन से जुड़े हुए हैं?